हास्य-व्यंग्य: एक पराजित प्रत्याशी का आत्ममंथन

चुनाव आयोग पता नहीं क्यों मुझसे खार खाए बैठा है। आयोग ने तीसरी दफा भी मेरा नाम जीतने वालों की सूची में नहीं डाला। वह कहता है कि मुझे उतने वोट (Vote) ही नहीं मिले जो मैं जीत पाता। मैं तीसरे स्थान पर रहा। हालांकि नतीजे से मैं बहुत खुश नहीं हूं लेकिन अपनी पार्टी जितना दुखी भी नहीं हूं।

Written By : अनिल त्रिवेदी | Updated on: October 22, 2024 8:20 am

Defeated candidate

दस साल पूर्व जब पहली बार मैं चुनावी मैदान में उतरा था तो मैं पांचवें स्थान पर आया था। दूसरी बार मेरी औकात का स्तर सुधरा और मेरा चौथा नंबर आया। और इस बार मैं उछलकर तीसरे स्थान पर पहुंच गया। देश की प्रगति के साथ-साथ मैं भी आगे बढ़ रहा हूं। यकीन है कि आगामी एक-दो चुनाव के बाद मेरी हैसियत जीतने वाली हो जाएगी।

मतदाताओं ने धोखा दिया

वैसे मैं अपने को पूरी तरह पराजित नहीं मानता हूं क्योंकि आधी विजय तो मुझे उसी दिन मिल गई थी जब पार्टी ने कई बड़े दावेदारों को ठुकराकर मुझे टिकट दिया था। मुख्यमंत्री पद के कुछ दावेदार तो टिकट पाने के लिए गिड़गिड़ाते ही रह गए। मेरी पार्टी में टिकट हासिल करना जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मेरे साथ-साथ पार्टी को मेरी जीत पर पूरा भरोसा था। हम सब ने पूरी ताकत झोंक दी लेकिन मतदाताओं ने धोखा दिया और उन्होंने पूरा जोर दूसरे प्रत्याशी  को जिताने में लगा दिया। और मैं जीतते-जीतते पराजित हो गया।

Defeated candidate : जमानत जब्त होने से फर्क नहीं

अब हार गया हूं तो विरोधी लगातार ताना मार रहे हैं कि मैं बहुत बुरी तरह हारा हूं। Defeated candidate हूं और जमानत भी जब्त हो गई है। मैं इससे कतई सहमत नहीं हूं। अरे, बस हार तो हार है, अच्छी या बुरी कैसी। और जमानत जब्त होने से क्या फर्क पड़ता है। एक पार्टी तो सरकार बनाने का दावा करती थी लेकिन उसके सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। आखिर हारने वाला जमानत राशि का करेगा भी क्या? इसका शोक मनाना तो ऐसे ही है जैसे किसी की भैंस चोरी हो जाए और वह भैंस के गले में बंधी रस्सी जाने का दुख मनाए।

यह है आत्ममंथन का निष्कर्ष

चुनाव परिणाम (Election Result) के बाद जीतने वाले प्रत्याशी (Candidate) सरकार बनाने की तैयारी करते हैं। लेकिन पराजित प्रत्याशियों के पास आत्ममंथन के अलावा करने को कुछ नहीं बचता। हारे हुए उम्मीदवारों के लिए आत्ममंथन अपरिहार्य होता है। मैंने भी हार के कारणों की तलाश के लिए एक हफ्ते गहन आत्ममंथन किया। मेरे आत्ममंथन से जो निष्कर्ष निकला वह इस प्रकार है-

मतदाता (Voter) अब नेताओं से ज्यादा चालू हो गए हैं। नेताओं की तरह उन पर भी कतई भरोसा नहीं किया जा सकता। वे सुनते सबकी हैं लेकिन करते मन की हैं। और उनके मन की थाह पाना असंभव है। सभाओं में उन्होंने तालियां तो खूब पीटीं लेकिन वोट देते समय पाला बदलकर बटन दूसरे प्रत्याशी(Candidate) के निशान का दबाया।

चुनाव प्रचार के दौरान किसी एक मिठाई की तारीफ नहीं करनी चाहिए। सभी मिठाइयों को समान नजर से देखना चाहिए। हो सकता है हम जलेबी की तारीफ करें तो लड्डू प्रेमी बुरा मान जाएं या बर्फी के शौकीनों के दिल पर चोट लगे। मिठाइयों का स्वाद नेताओं की तुलना में जनता ज्यादा अच्छे से पहचानती है।

लोगों का अब नेताओं के वादों पर भरोसा नहीं रहा। 75 साल से झूठे वादे सुनते-सुनते वे तंग आ चुके हैं। अब वे प्यारे से प्यारे वादे पर भी विश्वास नहीं कर पाते हैं। घोषणापत्र देखते ही जनता को उबकाई आनी लगती है। हमारी पार्टी के घोषणापत्र को तो मेरी आंखों के सामने ही कई लोगों ने कूड़ेदान में फेंक दिया था। अब ऐसे में उनसे वोट की उम्मीद क्या करना।

टीवी चैनलों के चुनावी सर्वे और एक्जिट पोल (Exit poll) ने सबसे ज्यादा कबाड़ा किया। सर्वे और एक्जिट पोल(Exit poll) में तो मेरी और हमारी पार्टी की सौ फीसदी जीत पक्की बताई गई थी लेकिन नतीजे देखकर मेरा दिल बैठते-बैठते बचा। अब यह पक्का हो गया है कि चुनाव परिणाम एक्जिट पोल के एकदम उलट होते हैं।

प्रत्याशी (Candidate) को एक्जिट पोल(Exit poll) देखकर मिठाई का ऑर्डर नहीं देना चाहिए। जीत के बाद मंत्री बनने की उम्मीद में मैंने तो खुश होकर सौ किलो जलेबियों का ऑर्डर दे मारा लेकिन नतीजा आते-आते सारे कार्यकर्ता मुझे अकेला छोड़कर जीते प्रत्याशी के खेमे में लड्डू खाने चले गए।

मेरे आत्ममंथन का यह निष्कर्ष अगली बार काम आएगा। अगर कोई दूसरा प्रत्याशी भी इससे सबक लेता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।

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