Humor-Satire
कहां चले गये लोग, कहां गयी यहां की रौनक ? अनगिनत सवाल लिए लौटने लगा।
गांव में पीपल के पेड़ कई हैं लेकिन बुढ़वा शिवाला के सामने जो विशाल पीपल है, इसका नाम हहवा पीपल है। नामकरण कब और किसने किया, मालूम नहीं। भीषण गर्मी में यहां हराहर बहती हवा अति सुखदायी थी। पसीने से भींगे तन को राहत यहीं मिलती थी। हवा की गति से जब इसकी पत्तियां डोलतीं तो इस शोर से भी हर..हर की आवाज आती थी। संभवत: इसी विशेषता की वजह से इसका नाम हहवा पीपल रख दिया गया होगा। इस पीपल के ‘हहवा’ में ऐसा आकर्षण कि अन्न देवता का दर्शन करने के बाद हर कोई यहां खींचा चला आता था।
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हहवा पीपल के सन्नाटे से मेरा मन खिन्न था। तभी गाय चराने जा रहा एक युवा पास आ गया। पूछा किसे खोज रहे हैं? किसका नाम लूं। इस अचानक किये सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था। रास्ता भूल गये हो क्या? किस गांव के हो? अपने ही गांव में मेरा परिचय पूछा जा रहा…। मेरी बोलती बंद हो गयी। संभला। मैं इसी गांव का हूं। नौकरी करने दिल्ली चला गया था। रिटायरमेंट के बाद लौटा हूं। अब यहीं रहना है। हहवा पीपल के पास बड़ी रौनक हुआ करती थी। अब बहुत उदासी है। आपका क्या नाम है।
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बैजू। रौनक ही रौनक है। बस आपको दिखाई नहीं देती। ठंडी हवा अब हहवा पीपल की जगह कूलर, एसी की मिल रही है। रस्सी प्लास्टिक की आ गई है। खेती आपलोगों का परिवार छोड़ चुका है । बाबू लोग खेत बेच कर शहर में मकान बना रहे हैं। हम भी दो बीघा खरीदें हैं। 100 बीघा से ज्यादा दूसरे गांव के लोग खरीद चुके हैं। दोपहर नहीं, यहां शाम को आइये, लौंडों की गंगाजल, जड़ी-बूटी की महफिल से धुंआ उठेगा तब न आपको रौनक दिखाई देगी। बेवकूफ सा दिखने वाले बैजू के ठहाके से मेरा तन मन हिल गया। गांव में हुए बदलाव के सहज विश्लेषण से अस्तित्व कांप उठा। पूछा- सामने पंडाल बन रहा है। गांव में कुछ है क्या? बैजू चहका। अरे आज तो महफिल जमेगी। नरम दास के बेटे की शादी है। पश्चिम वाला पंडाल बराती के लिए और पूरब वाला पंडित- पुरोहित के लिए। दो क्विंटल मुर्गा आया है। इसका भी इंतजाम है। वह अपना अंगूठा मुंह में सटा दिया। मैं आवाक रह गया। पंडित जी भी..? बैजू रेस हो गया। खूब, खूब..। पत्तल के आगे हड्डियों का पहाड़ खड़ा कर दे रहे। ऊंच- नीच का भेद मिट गया है। गांव तरक्की पर है।
और शराबबंदी?
कागज में है। जेब में माल होना चाहिए। बैजू फिर ठहाका लगाया। सूरज की तपिश से ज्यादा गर्मी बैजू की बातों में थी। अब कोई सवाल करने की हिम्मत नहीं थी। मैं आगे बढ़ गया।
Humor-Satire : अड्डा नहीं , बेरोजगारों का आफिस
सोचा क्यों न ‘अड्डे’ पर चला जाए। वहां तो कई लोग बैठे ही होंगे। बेमतलब। गउंझी से लेकर राष्ट्रीय राजनीति पर बहस हो रही होगी। बिना सिर पैर की। निरूद्देश्य। निरर्थक। ताश के पत्ते फेंटे जा रहे होंगे। बादशाह और एक्का का पत्ता जिनके पास होगा, उनके चेहरे दमकते होंगे। निठल्लों का अड्डा। बिना काम वालों का दफ्तर। लोग इसे अड्डा कहते थे लेकिन हमलोग इसे ‘आफिस’ कहते थे। हमारा मानना था कि खेती और गोसेवा के बाद बचे समय का यह सदुपयोग हो रहा है। बेरोजगारों का टाइम पास यहीं होता था। घर से सिर्फ खाना खाने भर मतलब रहता था। दस बजे से शाम पांच बजे तक अड्डा गुलजार रहता था। अनायास मेरे कदम उधर बढ़ते गये। अड्डे पर पहुंचा तो आवाक रह गया। पहचान में ही नहीं आया। नीम का पेड़ तो था लेकिन खाट, चौकी जहां रहती थी , वहां जंगली घास का इस कदर अतिक्रमण था कि जमीन तक दिखाई नहीं दे रही थी। एक किनारे कुछ कुत्ते बैठे थे और दूसरे छोर पर सूअरों का झुंड थूथन से निवाला खोज रहा था। पप्पू भइया, बड़क, अलाउद्दीन , व्यासमुनि, विमलकांत, मोहम्मद अली, सरोज , अशोक, रामनाथ काका अरे .. किसका – किसका नाम लूं? दो दर्जन से अधिक स्थायी मेम्बर थे। अस्थायी भी इससे कम न थे। अड्डे की हालत तो हहया पीपल से भी दयनीय हो गई है। अब तो यह उदासी, मायूसी, खामोशी का अड्डा बन चुका है। मेरा खड़ा रहना मुश्किल हो गया। तभी फिर बैजू पास आ गया। क्या बाबू घर का रास्ता भूल गये क्या? बैजू को देख मैं कुछ घबरा सा गया। उसके शब्दों में गांव के विकास की परिभाषा डरावनी थी। यह फिर कहां से आ गया। वह फिर पूछा- क्या सोचने लगे बाबू? मैंने कहा – यहीं हमलोग पत्ते फेंटते थे। अब जंगल उग गया है। उदासी छायी है। बैजू जोर से हंसा। उदासी कहां, मौज है। बबुआ लोग अब शहर में पढ़ते हैं। पढ़ाई के नाम पर शहर में मौज उड़ा रहे हैं। गांव से धड़ाधड़ मनीआर्डर जाता था। अब गूगल पे हो जाता है। पढ़ते सब हैं लेकिन नौकरिया एके – दुगो को मिल रही है। ठीक से पढ़ते तब न सबको मिलती। नौकरी न होने से सबका बिआह रूका है। कुछ जने की उम्र 25 पर हो गई है। कुछ तो 30 पार कर गये हैं। 35 पार वालों का तिलकहरू खोजा जा रहा है लेकिन अगुवा हाथ खड़ा कर दे रहे हैं। उन लोगन का अब बिआह की उम्मीद नहीं रह गयी है। यह सब देखकर कुछ बबुआ लोग उधरे सेटिंग- गेटिंग भी करने लगे हैं। खाली वोट के समय जाति है नहीं त अब सब आपलोग के रिश्तेदार हो गये हैं। यादव, हरिजन में भी शुरुआत हो गयी है। भेदभाव खत्म। मौज ही मौज। अंग्रेजी में इंटरकास्ट का चलन शुरू हो गया है। गांव तरक्की पर है। बैजू का ठहाका दिमाग सन्न कर दिया। कुछ बोलने का मन नहीं किया।……
(नोट :- Humor-Satire अंदाज में लिखी ये रचना अभी जारी है। शेष अगले अंक में जाएगी )
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