अष्टावक्र(Ashtavakra) के पिता ऋषि कहोड भी बंदिन से पराजित होकर उसकी गुलामी में चले गए। तब 12 वर्षीय तेजस्वी बालक अष्टावक्र ने अपने पिता को मुक्त कराने के उद्देश्य से राजा जनक के दरबार में बंदिन को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। राजा जनक, अष्टावक्र(Ashtavakra) की बुद्धिमत्ता से प्रभावित हुए और उन्हें शास्त्रार्थ की अनुमति दे दी।
शास्त्रार्थ का प्रारंभ
शंखनाद के साथ शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। आचार्य बंदिन ने प्रश्न किया, “प्रपंच क्या है?” अष्टावक्र(Ashtavakra) ने उत्तर दिया, “जो कुछ भी दिखाई देता है, वही प्रपंच है।”
आचार्य बंदिन ने अगला प्रश्न किया, “जो दिखाई देता है, उसका क्या तात्पर्य है?” अष्टावक्र ने उसे स्पष्ट किया कि जो भी दृष्टिगोचर होता है, मन और इंद्रियों का विषय होता है, वही दृश्य है।
ब्रह्म, सृष्टि और जीव के विषय में प्रश्नोत्तर
आचार्य बंदिन ने फिर पूछा, “दृष्टा को कौन जानता है?” अष्टावक्र(Ashtavakra)ने उत्तर दिया, “स्वयं को देखने के लिए किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती, जैसे सूर्य को प्रकाश के लिए दीपक की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं प्रकाशमान है।”
बंदी ने पूछा, “सृष्टि कहाँ से आयी?” अष्टावक्र ने बताया, “यह ब्रह्म से उत्पन्न हुई है, जो अपनी माया से संसार की रचना, पालन और संहार करता है।”
ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया और ब्रह्मज्ञानी के लक्षण
आचार्य बंदिन ने ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया पर प्रश्न किया। अष्टावक्र ने बताया कि ब्रह्म को जानने के दो मार्ग हैं: पहला मार्ग यह है कि जो ब्रह्म नहीं है उसका निषेध करें, और दूसरा सत्य को उसी रूप में पहचानना, जैसे वह है।
ब्रह्मज्ञानी के लक्षणों के बारे में बताते हुए अष्टावक्र (Ashtavakra) ने कहा कि जो व्यक्ति दावा करता है कि उसने ब्रह्म को जान लिया है, वह वस्तुतः ब्रह्म को नहीं जानता, क्योंकि ब्रह्म का अहंकार के साथ कोई स्थान नहीं है।
बंदिन की पराजय
शास्त्रार्थ अनवरत चलता रहा। अष्टावक्र(Ashtavakra) के तर्कों से बंदिन का उत्तर समाप्त हो गया और वह मौन हो गया। अंततः सभी विद्वान और राजा जनक अष्टावक्र की प्रशंसा में जुट गए। राजा जनक ने अष्टावक्र को फूलों की माला पहनाई।
आचार्य बंदिन ने अपनी पराजय स्वीकार की और जल समाधि लेने के लिए तैयार हुए। किंतु अष्टावक्र ने उन्हें रोकते हुए कहा कि उनका उद्देश्य दंड देना नहीं, बल्कि विद्वानों की स्वतंत्रता दिलाना है। उन्होंने कहा, “मैं आपको क्षमा करता हूँ। मेरा प्रतिशोध आपकी क्षमा में ही है।”
पश्चाताप की महत्ता और शिक्षा
अष्टावक्र(Ashtavakra) ने बंदिन को समझाया कि पश्चाताप की अग्नि में तपना ही सच्चा प्रायश्चित है और शास्त्र को शस्त्र नहीं बनाना चाहिए। उन्होंने राजा जनक से कहा कि शास्त्र जीवन का विकास करते हैं, जबकि शस्त्र विनाश का कारण बनते हैं। हिंसा से किसी को जीता नहीं जा सकता।
यह पौराणिक कथा हमें सिखाती है कि अहंकार से दूर रहना चाहिए। सच्ची जीत दंड देने में नहीं, बल्कि क्षमा करने में है।
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(मृदुला दुबे योग शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं.)
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